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मुझे मेरे शुभचिंतकों के द्वारा प्रायः यह याद दिलाया जाता है कि कोई चुनाव लड़ना तभी सम्भव है जब बहुत पैसा हो - “बाक़ी सब तो ठीक है,
लेकिन आपको ऐसा करने के लिए बहुत पैसे की ज़रूरत पड़ेगी”।
वे पूरी तरह ग़लत भी तो नहीं हैं क्योंकि वर्तमान राजनीति की सोच यही है।
यहाँ तक कि भ्रष्टाचार-मुक्त राजनीति में, जिसमें वोटर और दलाल ख़रीदें नहीं जाते,
ज़रूरी ख़र्चों के लिए पैसे की आवश्यकता होती है और इसे कोई नज़रंदाज़ नहीं कर सकता।
बहरहाल, वर्तमान सोच इन ज़रूरी ख़र्चों पर आधारित न होकर राजनीति,
काले धन और ग्राहकवाद के दुर्भाग्यपूर्ण गठजोड़ पर आधारित है।
आज राजनीति व्यापार का एक अनैतिक रूप बन गई है जिसका विकास और पब्लिक वेलफ़ेयर से कोई जुड़ाव नहीं है।
ऐसे लोग (जिनमें अपराधी भी शामिल हैं) जो जीवन में कुछ कर नहीं पाते,
वे व्यक्तिगत फ़ायदे के लिए राजनीति को एकमात्र विकल्प के रूप में देखते हैं।
यह वैसे पावर को हासिल करने का उपकरण बन गई है जिसका दुरुपयोग किया जा सकता है।
इस प्रकार, राजनीति जो आदर्श रूप में सामाजिक-आर्थिक असमानता को दूर करने वाली होनी चाहिए,
वह अंततः इसे और गहरी बनाती जाती है। आज राजनीति उन सभी चीज़ों को व्यक्त करती है जिनका इसे
नियंत्रण और निषेध करना चाहिए था। सबसे अयोग्य और अक्षम लोग राजनीति में प्रवेश पाते हैं
(एक मिनट के लिए किसी भी राजनेता के बारे में सोचिए)। राजनीतिक कैम्पेन काले धन से चलाए जाते हैं।
हम ऐसी उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि जो लोग चुनाव में काले धन पर निर्भर हैं, वे जीत के दिन अचानक
से बदल जाएँगे? इसका विरोध न करना इसका मौन समर्थन है। क्या यही हम अपने राजनेताओं से अपेक्षा
भी रखते हैं? क्या हमने कभी प्रश्न किया है कि वो पैसा कहाँ से आता है जिसके दम पर ताक़तवर ‘लहर’
बनाई जाती है और हेलिकॉप्टर उड़ान भरते हैं? नहीं, हम ख़ुद को यह यक़ीन दिलाते हैं कि हमारे नेता
‘बहुत ईमानदार’ हैं क्योंकि वे स्वयं अपने लिए पैसा नहीं लेते हैं (सही बात है! वो तो उनकी पार्टी और उम्मीदवार लेते होंगे! )।
राजनीति करने के इस तरीक़े में निस्सन्देह तीन गंभीर समस्याएँ हैं।
पहला, काला धन नैतिक प्रतिबद्धता को न सिर्फ़ पराजित करता है बल्कि नीचा भी दिखाता है। दूसरा, चूँकि पैसा ही निर्णायक पहलू बन जाता है
इसलिए बिना पॉलिसी निर्माण की जानकारी वाले लोग राजनेता बन जाते हैं। और तीसरा कि यह नेता-वोटर के बीच उत्तरदायित्व और सुनवाई के सम्बन्धों
को पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर देता है। यदि कोई राजनेता प्रभावशाली वर्ग (जो राज्य के 1 प्रतिशत लोग हैं) से प्राप्त काले धन से चुनाव जीतता है तो
क्यों वह पब्लिक के प्रति ज़िम्मेदार होगा? फिर, क्यों वह जनता के लिए काम करेगा? इस व्यवस्था में विकास की तो अपेक्षा करना ही छलावा है।
यह सिस्टम सिर्फ़ चंद मुट्ठी भर लोगों के फ़ायदे के लिए है। अतः जब भी कोई नेता जीतता है, हम हार जाते हैं। हम सत्ता के इन दलालों को जीताकर हार जाते हैं।
इसे और क्या समझा जाए? इसके बारे में सोचिए। अगर हम उस राजनीति के पक्ष में उठ नहीं खड़े हो सकते, जो योग्यता और
नैतिक प्रतिबद्धता पर आधारित हो, तो हम शिकायत करने का अधिकार खो बैठते हैं।
मैं भ्रष्टाचार-मुक्त, पारदर्शी और साफ़ राजनीति के लिए खड़ी हूँ।
मेरे पास सत्ता के दलालों को चुनौती देने के लिए योग्यता, ज्ञान, विशेषज्ञता और नैतिक प्रतिबद्धता है, लेकिन मेरे पास कालाधन नहीं है।
मैं इसे अपनी मज़बूती मानती हूँ, और मैं निश्चित हूँ कि मैं अपना रास्ता नहीं बदलूंगी और न ही राजनीति के वर्तमान नियमों से मुझे खेलना है।
परंतु, निश्चय ही मुझे समूचे चुनाव का ख़र्च वहन करने के लिए पैसों की ज़रूरत है। यहाँ तक कि राजनीति की भ्रष्टाचार-मुक्त प्रक्रियागत ख़र्च के
लिए भी पैसे की ज़रूरत होती है। और इसलिए, मुझे सहयोग दीजिए, मेरे साथ खड़े होईए, और इसलिए साफ़-सुथरे लोकतंत्र के लिए सहयोग कीजिए।
मैं आपको भरोसा दिलाती हूँ कि आपकी गाढ़ी कमाई का पैसा न तो व्यर्थ जाएगा और न ही दुरुपयोग होगा।